दिन दिन साथ चलते चलते
कभी रोते, कभी साथ हँसते
मन कि कालिख तन पर पोतते
मैं उसकी परछाईं बन गया
काला अंतहीन सा अस्तित्त्व
उसकी रौशनी से बहुत दूर
घिसटता , राहों में पिसता
सिमटा, सूना सा मैं चलता
उजाले और अन्धकार का मेल कहॉ
अच्छे और बुरे का मेल कहॉ
परछाईं का तन से मेल कहॉ
मेरा उसका अब मेल कहॉ
कहॉ देखे थे मैंने सपने
चलूँगा हाथ थामे उसका कभी
अब यादें रौंदती हैं
पैरों तले हर वो मेरी ख़ुशी
काँटों में उलझकर, फँस कर
बिंध चुका है अब तो तन
जानता हूँ कांटे ही हैं बस
छुड़ा तो नही सकता उस से अपना मन
कभी रोते, कभी साथ हँसते
मन कि कालिख तन पर पोतते
मैं उसकी परछाईं बन गया
काला अंतहीन सा अस्तित्त्व
उसकी रौशनी से बहुत दूर
घिसटता , राहों में पिसता
सिमटा, सूना सा मैं चलता
उजाले और अन्धकार का मेल कहॉ
अच्छे और बुरे का मेल कहॉ
परछाईं का तन से मेल कहॉ
मेरा उसका अब मेल कहॉ
कहॉ देखे थे मैंने सपने
चलूँगा हाथ थामे उसका कभी
अब यादें रौंदती हैं
पैरों तले हर वो मेरी ख़ुशी
काँटों में उलझकर, फँस कर
बिंध चुका है अब तो तन
जानता हूँ कांटे ही हैं बस
छुड़ा तो नही सकता उस से अपना मन
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