टूटी थी कश्ती कभी
और अब एक तख्ते पर मैं
और एक तख्ते पे तुम
चले जा रहें हैं कहीं
जाने कैसी हैं नदियाँ ये
कि बस दूर ही हुए जा रहे हैं
आज तो कुछ चिल्ला कर
कर लेते हैं थोडी बातें
आंसू भरे चेहरे नही दिखते पर
दूसरे के होने का एहसास तो है
कल लेकिन तुम इतने दूर
कहीं दूर चले जाओगे
कि दिखना तो दूर की बात
कोई आवाज़ भी ना मेरी सुन पाओगे
फ़िर रह जाएगा घुटती साँसों का शोर
और लहरों की कर्कश आवाजें
फ़िर सारी बातें मन में समेटे
अपने तख्ते को कस कर पकड़े
मैं बस यहीं इन्ही धारों में कहीं
बहता रहूँगा अकेला जाने कब तक
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