दरवाज़े पर आ
ठिठक जाती है जो
उस किरण को
अब क्या कहूं?
पर अंधेरे को भी
कब तक सहूँ?
कल आँख में
भर आई थीं जो
कुछ बूँदें खारी
उनके स्वाद का चर्चा
किसी से क्या करूं?
पर खाली आंखों को
और भला कैसे भरूँ?
छोड़ गए हैं कब के
सपने सुनहरे जो
उनकी परछाईं को
मैं कैसे धरूँ?
कुछ उलझी लकीरों में
उलझ गयी है जो
उस जिंदगी को जिए बिना
अब कैसे मरूँ?
ठिठक जाती है जो
उस किरण को
अब क्या कहूं?
पर अंधेरे को भी
कब तक सहूँ?
कल आँख में
भर आई थीं जो
कुछ बूँदें खारी
उनके स्वाद का चर्चा
किसी से क्या करूं?
पर खाली आंखों को
और भला कैसे भरूँ?
छोड़ गए हैं कब के
सपने सुनहरे जो
उनकी परछाईं को
मैं कैसे धरूँ?
कुछ उलझी लकीरों में
उलझ गयी है जो
उस जिंदगी को जिए बिना
अब कैसे मरूँ?
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