सुनहरी किरणों से
तारों सी चमकती
भोर सी भोली आंखों में
तैरती खुश परछाईयाँ लिए
अपने में मगन
उस इक लड़की से
बहती लहरों ने
कुछ चिल्ला कर
पूछा कि पगली रे!
क्या करती है बालू में?
चेहरे पे आयी
कुछ आवारा लटों को
हवा के हवाले कर
लड़की ने कहा
सुनहरे सपने सजाती हूँ
आशाओं का महल
रेत से बनाती हूँ
दबे क़दमों से
लहरें उसके आँचल तक
सरक गयीं और देखा
की थपकियाँ देती
सुरों से सपने सजाती
वो लड़की तो बस
ख़ुद में ही खोयी थी
और उसकी हँसी से
बादलों के पार
सूरज के चेहरे पे भी
मुस्कान छाई थी
सने हाथ माटी की
खुशबू में घुले
रेत की दीवारों को
चट्टानों सा बनाते थे
और उसकी परछाईं
में छुपने को
किरणों के मन भी
कहीं बहुत ललचाते थे
क्या कहूं इसके सिवा
की उस मुस्कान को देख
बस लगा कि
चाहे कुछ भी हो जाए
पर ये भोली सुंदर हँसी
इस चेहरे को छोड़
कभी कहीं ना जाए
समंदर के सारे
तूफानों की ताकत से
माटी से सने हाथ
हँसी हँसी में निपट लें
और किरणों सी चमकती
आंखों की खुशी पे
गम की परछाईयाँ
कभी ना छायें
[inspired by the song maati by shubha mudgal]
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