April 14, 2007

आँखों की ज़ुबानी


कल छोटे से किसी आसमान के टुकड़े से
झांकती दिखी थी दो आंखें
दर्द भरी , नीली नीली
मुझको ताकती दो आंखें

बरसें हैं बादल आज फिर से कहीँ
खारी बूंदों ने दस्तक दी है
होंठों ने तो बस चुप्पी ही साधी
आंखों ने कहानी कही है

भीगे मन को और कितना भिगोऊँ
पानी बन मन बह चला
कल कोई और कहानी थी
आज कोई और किस्सा बन मैं चल चला

दिन गिनते, रातों का हिसाब रखते
अब तो आंखें पथरा गई हैं
और इस पत्थर पर ना जाने कितनी नदियाँ
अपने अस्तित्त्व के निशां छोड़ गयी हैं



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