June 24, 2007
झूम बराबर झूम
धागे तोड़ लाओ चांदनी से नूर के
घूंघट ही बना लो रौशनी से नूर के
शर्मा गयी तो आगोश में लो
साँसों से उलझी रहे मेरी साँसे
बोल ना हलके हलके
होंठ से हलके हलके
बोल न हलके
बीच बाजारी दंगे लग गए
दो तल्वारी अंखियों के ओ मखना
जान कटे कि जिगर कटे
इन दो अंखियों से मखना
चांद की उतार ली है दोनों बालियाँ
आजा आजा हाथ मार दे तालियाँ
ओ बिल्लो नी बिल्लो नी बिल्लो नी
आजा चांदनी कूटेंगे आसमान को लूटेंगे
चल धुआं उड़ा के
झूम बराबर झूम बराबर झूम ...
क्या मस्त गाने हैं ना 'झूम बराबर झूम' के? ऐसे शब्द जिनका सीधे सीधे कोई मतलब ना निकलता हो, मुझे बहुत अच्छे लगते हैं।
but every time i hear these songs, i'm reminded of this flaw in my own writings. all my creations are very visual. i can never write lines like चांदनी कूटेंगे, आसमान को लूटेंगे !! which is sad. coz i want to do so. but can't. every time i try, i end up hating the two or three lines that i write. so i erase/tear them up.
another block to overcome.
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2 comments:
कोई बात नहीं बंधु, यकीन मानिए, लिखते लिखते आपकी लेखनी की धार भी चमक जाएगी.
@raviratlami
apke munh mein ghee shakkar [:)]!!
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