July 22, 2008

पत्र-मित्र


कुछ ख़त उन्हें भेज कर
हम रोते हैं चुपचाप कि
आँखें तरस गयीं बरस कर
कोई जवाब नही आया कभी
पर कहनी है जो बातें
कलम से निकल ही जाती हैं
और रोते रोते भी हम
कागज़ काले कर देते हैं
आंखों से बहकी नींद
आंसुओं से पूछती है
बातों की तो कमी
कभी होगी नही शायद
फ़िर कब तक चलेगी
खतों की ये कवायद
पर वो भी क्या करें
कहनी है उन्हें भी कुछ बातें
खतों को बडे प्यार से सम्भाल
रखा है सिरहाने पे
कलम उनकी भी कांपती है
जवाब देने को कभी
पर समझ में ना आए
की क्या लिखा जाए
क्यूंकि मेरे सारे शब्द
आंसुओं से धुल कर सफ़ेद हैं
और कोरे कागज़ के
गीले से चेहरे के भाव
वो चाह कर भी
कभी पढ़ नही पाए हैं

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