October 11, 2009

फ़िर मिलेंगे :)


तारों की छलनी से
छन कर आती चांदनी की
उजली किरणों की आड़ में
तेरे चेहरे की चांदनी को तकते
एक वो रात गुजारी थी
हाथों में तेरा हाथ
मुट्ठी में तारों का एहसास
कुछ कहती पलकों की थिरकन
शैतान सी कौंधती माथे की शिकन

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हर रात तारों को तकते
उस रात को सोचते हैं हम
मुस्कराते हुए फ़िर मिलने की सोच
हाथों की लकीरों में
उस रात के तारों के निशाँ
खोजते रहते हैं हम

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वो देखो चाँद कह रहा है
तुम भी उधर अपनी हथेली
ऐसे ही देख रही हो
मेरी उँगलियों की लिखी कहानी में
कुछ अपने शब्द जोड़
मेरी तरह मुस्करा रही हो

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उस रात के तारे सारे
जाने फ़िर मिलें ना मिलें
पर जाने क्यों मुझे भरोसा है
अगली बार जब हम मिलेंगे
तुम्हारी आंखों में फ़िर वही
रौशनी की परछाईयाँ दिखेंगी

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जल्दी कोई मिलने का बहाना निकालो
कि अब दूरी का दर्द खलने लगा है
आज की रात फ़िर वही रात हो
ये सोच सूरज भी जल्दी ढलने लगा है

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