March 27, 2008

इतना अँधेरा क्यों है भाई [:P]


धुंध में लिपटे
कुछ ठिठके क़दमों से
घुप अंधेरे में
भटकी सी चाल
काँटों से बिंधे
तलवों की गरमी को
ठोकरों से मिली
लाली से बुझाने
की नाकाम कोशिश
अनजान परछाईयों को
पकड़ने की चाहत में
ख़ुद से कहीं दूर
किसी अंधेरे को
अपना सपना कहना
रौशनी की तलाश
में सोचा ना था
इतने अंधेरों से
जूझना पडेगा कि
कल रौशनी बस
इक धुंधली सी
याद रह जायेगी

[the word 'dhundh' has been stuck in my mind for quite a few days. this poem has had many starts and it was only today that i could complete it.]

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