September 1, 2009

the impossible match


समंदर बिछा कर हवाओं पर चलती है वो
लहरों सी टूटती-बिखरती-बनती है वो
उड़ते-उड़ते जब ख़त्म हो जाता मेरा आसमान
अपने पंखों से बादल गिरा देती है वो

खुद में सिमटा सा मैं देखता रहता हूँ
कैसे मेरा सारा जहाँ पलक झपकते सजा देती है वो
पानी की तस्वीरों की तरह छूने से डरता हूँ उसे
कि कहीं अपनी ही हवाओं में गुम ना हो जाये वो

क्यूँ रहती है आस पास कहीं जबकि जानती है वो
ना मैं उड़ पाऊँगा कभी, ना ज़मीन पे आयेगी वो

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