August 11, 2007

बंजर


बंजर रेतों में घुलते कुछ साए
धंसते पैर, ग़ायब होते कुछ सपने
हाथों से फिसलते रेत के महल
अधूरे, अधपके ख्यालों का सूनापन

कल के निशां तो कहीँ खो गए हैं
कहॉ से चले थे, कहॉ हैं
परछाईं बस साथ है अब
बिन्धती है वो भी पैरों तले

जलती हवाओं में गूंजती हैं
कुछ कल की खोयी कहानियाँ
हाथों से गढी थी जो कभी
उन आकृतियों की निशानियाँ

बंजर है, सब बंजर है



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